जिद्द है तो जिंदगी है | Asambhav Kuch Bhi Nahi

असंभव कुछ भी नहीं | Nothing is Impossible

वे लोग भी बड़े खुशकिस्मत होते है, जिन्हे सफलता तुक्के में नहीं मिलती। क्योंकि आसानी से मिली सफलता के टिकाऊ होने की उम्मीद बहुद कम होती है। मगर जिनकी सफलता के पीछे असंभव को भी संभव कर दिखाने की जिद्द होती है, वही लोग असल मायने में सफलता के शिखर तक पहुंचते हैं। वैसे आज की पहली स्टोरी में हम बात करने वाले हैं एक ऐसी ही महान शख्सियत की, जिन्होंने यह साबित कर दिया कि इंसान की अकल्पनीय शक्तियों के सामने असंभव कुछ नहीं।

कहानी विल्मा रुडोल्फ की

asambhav kuch bhi nahi, nothing is impossible
nothing is impossible
       हम बात कर रहे हैं अमेरिका को बतौर ट्रैक एथलीट ऑलम्पिक में स्वर्ण पदक  दिलाने वाली विल्मा रुडोल्फ की। विल्मा की शुरुआती जिन्दगी इतनी आसान न थी। क्योकि 23 जून 1940 को जन्मी  विल्मा के बारे में डॉक्टरों ने जन्म के समय ही कह दिया था कि ये कभी जमीन पर कदम नहीं रख पायेगी। और हुआ भी कुछ ऐसा ही, क्योंकि 9 साल की उम्र तक वो सिर्फ केलिपर्स के सहारे ही चलती रही। लेकिन एक दिन एक ऐसा वाक्या हुआ जिसने उनकी पूरी जिन्दगी को बदल कर रख दिया। दरहसल उस दिन वो अपनी माँ के पास गयी और उनसे पूछा कि "माँ, मैं क्या कर सकती हूँ जबकि मैं चल नहीं सकती। उनकी माँ इस बात को सुनकर थोड़ा भावुक हुई लेकिन जानते हैं उन्होंने अपनी बेटी से क्या कहा? "तुम्हारे लिए असंभव कुछ नहीं अगर तुम जिद्द कर लो तो चलना तो छोटी सी बात है तुम दुनिया की सबसे तेज़ धाविका भी बन सकती हो।" अपनी माँ द्वारा कही गयी इस बात का उनपर इतना गहरा असर पड़ा कि उसी दिन उन्होंने थान लिया कि मुझे इस देश की ही नहीं पूरी दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है।

विकलांगता से ओलम्पिक गोल्ड तक का सफर 

asambhav kuch bhi nahi, nothing is imposible
wilma rudolph
       9 साल की उम्र में उन्होंने केलिपर्स उतार फेंके और असंभव को संभव कर दिखाने की जिद्द में जुट गयी। उन्होंने रेस प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू किया, मगर भरसक प्रयासों के बाद भी वो लगातार रेस में आखिर स्थान पर आती रहीं। लेकिन जीत की जिद्द ऐसी थी कि जो उनको सैकड़ो असफलताओं के बाद भी हार नहीं मानने दे रही थी और उसी लगातार प्रयासों की वजह से विल्मा को पहली बार साल 1956 में ऑस्ट्रेलियाई ओलम्पिक में भाग लेने का मौका मिला और उस प्रतियोगिता में वो 200 मीटर रेस में ब्रोंज मैडल जितने में सफल रही। मगर अभी उनका दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनने का सपना बाकी था। उसके ठीक 4 साल बाद फिर ओलम्पिक खेलों का आयोजन हुआ,  लेकिन इस बार उनका मुकाबला उस समय की सबसे तेज़ धाविका जुत्ता हेन से था और रोम में हुए उस प्रतियोगिता में सबको उम्मीद थी की  जुत्ता ही गोल्ड मैडल जीतेंगी। मगर किसी को नहीं पता था कि विल्मा उस प्रतियोगिता में इतिहास रचने जा रही हैं। पहली दौड़ 100 मीटर की हुई और लोगो की उम्मीदों से परे विल्मा ने  जुत्ता को हराकर अपना पहला गोल्ड मैडल जीत लिया। मगर बात यही ख़त्म नहीं हुई। उसके बाद 200 मीटर की रेस में भी वो अपराजित रहीं और फिर 400 मीटर रिले रेस में भी। उस प्रतियोगिता में लगातार 3 गोल्ड मैडल जीतकर वो दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गयी। साथ ही उन्होंने ये बात भी साबित कर दी कि जिद्द है तो असंभव कुछ नहीं। 



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1 comments:

  1. Great ledy, ha zid ho to aisi sabit karke dikha diya ,di l se swlut.

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